इसमें संदेह नहीं कि भारत सोने की चिड़िया रहा होगा, मगर उस चिड़िया के ‘पर’ शायद अंग्रेजों के आगमन से बहुत पहले ही कतरे जा चुके थे. बाहरी मुस्लिम शासकों के हमलों और तानाशाही का दंश झेलते हुए, ये चिड़िया अंग्रेजों के आगमन से बहुत पहले ही कमज़ोर हो गयी होगी.
ऐसे ही एक वंश की निर्दयता और बर्बरता का साक्षी बना 1290 ई. से 1320 ई. का काल खंड. यह वह समय था, जब सोने की इस चिड़िया के निर्ममता से ‘पर’ कतरे जा रहे थे.
तो आईए चर्चा करें खिलजी वंश की तानाशाही, निर्दयता, लूट तथा हत्याओं से भरे शासनकाल की–
कौन थे ये खिलजी ?
सन 1290 में गुलाम वंश के अंतिम शासक कैकुबाद के पतन के साथ ही गुलाम वंश का अंत हो गया. गुलाम वंश के बाद दिल्ली सल्तनत पर जिस वंश ने अपना अधिकार स्थापित किया, वह था खिलजी वंश.
खिलजी कौन थे और ये कहाँ के मूल निवासी थे इस बात पर हमेशा से विवाद रहा है. इसको लेकर कई मत हैं. कुछ उन्हें चंगेज़ खां का दामाद एवं कुलीन खान का वंशज बताते हैं, कुछ लोग उन्हें तुर्कों से अलग, तो कुछ खिलजियों को तुर्कों की विभिन्न प्रजातियों में से एक बताते हैं.
वहीं एक मान्यता यह भी है कि भारत आने से पूर्व खिलिजियों की प्रजाति हेलमंद नदी के तटीय क्षेत्रों में निवास करती थी और उस स्थान को खिलजी कहा जाता था, सम्भवतः यही कारण हो सकता है कि वहां रहने के कारण इस प्रजाति को खिलजी नाम दिया गया.
गुलाम वंश का पतन और…
सन 1290 में कैकुबाद की हत्या के साथ ही गुलामवंश का पतन सुनिश्चित हो गया. गुलाम वंश के सबसे कमज़ोर शासक के रूप में पहले ही कैकुबाद गुलामवंश की नींव हिला चुका था, परिणामस्वरूप जलालुद्दीन फिरूज़ खिलजी को दिल्ली सल्तनत पर अपना अधिकार स्थापित करने में ज़रा सी भी दिक्कत ना हुई.
एक तरह से खिलजी वंश के स्थापित होने के बाद भी गुलाम वंश की परंपरा टूटी नहीं थी, क्योंकि खिलजी वंश का संस्थापक जलाल-उद-दीन भी कहीं का शासक नहीं, अपितु गुलाम वंश के ही सुल्तान गियास-उद-दीन बलबन की सेना का सिपाही था.
बलबन के शासनकाल में उसने बलबन की सेना की तरफ से उत्तर पश्चिम सीमाओं पर मंगोलों के विरुद्ध मोर्चा संभाला था. कैकुबाद के शासनकाल में उसकी उपलब्धियों को देखते हुए उसे गवर्नर की उपाधि दी गयी. बाद में वह सम्पूर्ण सेना का सर्वोच्च अधिकारी बनाया गया.
अपनी शक्तियों का विस्तार देख जलाल-उद-दीन खिलजी ने विलासी सुल्तान कैकुबाद तथा उसके महत्वाकांक्षी वज़ीर निज़ाम-उद-दीन के विरुद्ध एक षड्यंत्र रचा. अंततः सन 1290 में वह सत्ता प्राप्त करने में सफल रहा.
दिल्ली सल्तनत की बागडोर अपने हाथों में लेते समय जलाल-उद-दीन की आयु सत्तर वर्ष हो चुकी थी. कहा जाता है कि वह सौम्य और उदार प्रवृति का स्वामी था. उसने अपनी उदारता के कारण अनेक शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली.
उसने किसी भी अपराधी को सज़ा-ए-मौत देने पर रोक लगा दी. किश्लू खान गियास-उद-दीन बलबन का भतीजा था और खुद को सिंहासन का उत्तराधिकारी मानता था. किन्तु, खिलजी वंश के उदय के उपरांत उसके सपनों पर पानी फिर गया. उसने अवध के गवर्नर के साथ गठबंधन कर के जलाल-उद-दीन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. किन्तु, इससे उसे कुछ हासिल ना हुआ. असल में सुल्तान के पुत्र अर्काली खान ने उसे बुरी तरह हराया और कैद कर लिया.
हालांकि, जलाल-उद-दीन ने अपनी उदारता दिखाते हुए किश्लू खान को क्षमा कर दिया.
अला-उद-दीन खिलजी की बर्बरता
अला-उद-दिन खिलजी, जलाल-उद-दीन खिलजी के भाई शिहआब-उद-दीन का पुत्र था. वैसे तो अला-उद-दीन जलाल-उद-दीन का भतीजा व दामाद था, किन्तु जलाल-उद-दीन उसे अपने पुत्र से भी बढ़ कर मानता था. किश्लू खान छज्जू को बुरी तरह हराने के बाद जलाल-उद-दीन ने अला-उद-दीन को इलाहबाद के निकट कारा का गवर्नर नियुक्त कर दिया.
सन 1292 में मालवा और भिलसा की लूट के बाद अला-उद-दीन ने अपने चाचा का विश्वास जीतने के लिए उसे ढेर सारा सोना और जेवरात दिए. उसने एक सैनिक के रूप में बहुत मान सम्मान प्राप्त किया, परन्तु अला-उद-दीन इतने में खुश होने वाला इंसान नहीं था. उसकी नज़र सम्पूर्ण साम्राज्य पर टिकी हुई थी.
अंततः सन 1296 में अला-उद-दीन ने अपने चाचा के साथ विश्वसघात करते हुए उसकी हत्या कर दी तथा खिलजी वंश के दूसरे सुल्तान के रूप में दिल्ली सिंहासन पर विराजमान हो गया.
सन 1296 से 1306 तक मंगोलों ने अपने विभिन्न सेना प्रमुखों के संरक्षण में दिल्ली पर अनेक बार हमला किया, किन्तु अला-उद-दीन ने उन्हें जालंधर (1298), किली (1299), अमरोहा (1305), रावी (1306) जैसे युद्धों में सफलतापूर्वक उन्हें परास्त कर दिया.
उन दिनों कई मंगोल इस्लाम कबूल कर के दिल्ली के आसपास बस गए, किन्तु जब अला-उद-दीन को यह संदेह हो गया कि वे सभी उसकी जासूसी करने के लिए यहाँ बसे हुए हैं, तब उसने एक ही दिन में उन सब की हत्या करवा दी. उन सभी की संख्या लगभग 30,000 थी!
अला-उद-दीन ने उन सब मंगोलों की हत्या के बाद उनके बीवी बच्चों को अपना गुलाम बना लिया. 1301 ई. में उसने रणथम्भौर में राजपूत किले पर आक्रमण किया, किन्तु पहली बार वह विफल रहा. उसने दूसरी बार फिर से हमला किया और इस बार उसे सफलता प्राप्त हो गयी. इस युद्ध में राजा हमीर देव, जो पृथ्वीराज चौहान के वंशज थे बहादुरी से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे.
अला-उद-दीन इसी तरह राजाओं को लूटता रहा तथा अपनी अधीनता स्वीकार करने वालों से भारी कर वसूलता रहा. देखते ही देखते उसने सुदूर दक्षिण क्षेत्रों को भी दिल्ली सल्तनत के अधीन कर लिया. अला-उद-दीन सिकंदर महान से इतना प्रभावित था कि उसने स्वयं से ही स्वयं को सिकंदर-ए-सानी की उपाधि दे दी तथा सिकंदर द्वितीय के नाम से सिक्के भी चलाए.
अंततः सन 1315 में शोफ रोग के कारण उसकी मृत्यु हो गयी.
।