कविश्री दुलाभाया काग रचित दुहाओ

कविश्री दुलाभाया काग रचित दुहा ओ

*** दुहा ***

उपर उजळीयो थीओ, मछनां पेट मसाण;
ऐथी सारो जग सुजाण, काळा रंगनो ‘कागडो’….

मन मेलां तन उजळां, ऐवी भात अनेक;
धन्य काळुडा ‘काग’ने, बहार भीतर ऐक…

ईडां जो अवरां तणां, तारे माळेय मुकी धे;
ऐने सोड्ये साचवजे, के’वाय थापण ‘कागडा’…

माळे मेलीने गियां, चाहे ज छेतरवा;
ऐनुं वेर ज वाळीश ना, कूणां सामुं ‘कागडा’…

बचलां थाशे बोलशे, ऐमांय आतम छे.
ऐने सोड्ये सेवी दे, भले कोयल ईडां ‘कागडा’!…

भाळे आंखडीये भुवण, प्रेम सौ पंखीना;
तारो भोग जे भाळे ना, कदीऐ मानव ‘कागडा’…

तन काळो मन उजळो, चतुर चांचाळो;
भणतां नव भाल्यो, कुळनुं डा’पण ‘कागडा’!….

छेतरवा चाहे धणा, चतुर ना सपडाय;
जुठां ने जाणी जाय, कामणवाळो ‘कागडो’….

भोजन मीठुं भाळतां, दगो दरशावे;
सौने समजावे, कळकळ बोलीने ‘कागडो’…

कळ कळ बोले ‘कागडो’, स्वादे चडशो ना;
जमवा जशो ना, पंखीयो ! ऐमां पाशलो…

कुडा साचा कोकना, धाट ज धडीये ना;
चतुर चडीये ना, कोईने वादे कागडा…

– चारण कवि श्री दुला भाया काग (भगतबापु).

Jaydip Udhas

Author: Jaydip Bhikhubhai Udhas

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